कोरोना और बच्चों की पढ़ाई.

          व्हाट्सऐप्प बना घर बैठे छात्रों केलिए पढाई का जरिया.

कोरोना ने वैश्विक महामारी का रूप लेकर ऐसा किया है मानो दुनिया के विकास का पहिया ही रुक गया हो. दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लोगों पर जहां करारा आघात हुआ है, वहीं स्कूली बच्चों के साथ भी प्रकृति का बहुत बड़ा प्रहार हुआ है. परन्तु हमारे ग्रामीण समाज की विडम्बना यह है कि आज भी यहाँ निवास करने वाले बहुत सारे लोग मानसिक व तकनीकी दृष्टिकोण से काफी पिछड़े हुए हैं.
ग्रामीण समाज के अधिकांश लोगों में इतनी सजगता नहीं है कि घर पर ही अपने बच्चे को सही दिशा निर्देश करते रहे. खासकर बिहार के ग्रामीण समाज इस मामले में काफी पिछड़े हैं. इसी का परिणाम है कि साक्षरता मिशन योजनाओं के अनवरत प्रयास के बावजूद भी साक्षरता के आंकड़ो में बिहार का स्थान अभी तक सबसे नीचे है. इसका सबसे बड़ा कारण अभिभावकों का शिक्षा के प्रति उदासीन रवैया तथा अधिकतर निजी विद्यालयों द्वारा शिक्षण संस्था को अन्य दुकानों की भांति केवल कमाई का माध्यम समझ लिया जाना है. 
        देश और दुनिया का जो हालात है उस आधार पर देखा जाए तो पढ़ने-लिखने वाले छात्रों को भी बहुत सारे प्राकृतिक आपदा ओं का सामना करना पड़ता है. गर्मी की छुट्टी के अलावे यदि अत्यधिक गर्मी पड़ गया तो उसके लिए भी छुट्टी, यदि अत्यधिक बारिश हो गई तो उसके लिए भी छुट्टी, यदि अत्यधिक ठंड पड़ने लगा तो उसके लिए भी छुट्टी इसका मतलब की विद्यालयों को ही मौसम का मार अधिक झेलना पड़ता है. इसका दुष्परिणाम निश्चित रूप से सबसे ज्यादा छात्रों पर ही पड़ता है. हालांकि मुझे जहां तक विश्वास है कि कौशल एवं तकनीकी का सहारा लेकर छात्रों की पढ़ाई को बाधित नहीं किया जा सकता है. खासकर इस तकनीकी युग में उनकी पढ़ाई को 1 दिन
भी बाधित नहीं हो सकती है. मुझे याद है बचपन के वो दिन जब संचार साधनों का अभी के वनिस्पत बहुत ज्यादा अभाव था, परन्तु इतनी प्राकृतिक विपदाएं नहीं थी. उस समय लंबी छुट्टी के नाम पर एक गर्मी की छुट्टी ही हुआ करती थी. यदि गुरुजन अपनी मांगों को लेकर सामूहिक हड़ताल पर चले जाते थे तो उनकी मांग मान लेने के बाद  उन्हें सार्वजनिक अवकाश के दिन ड्यूटी पूरा करके छात्रों की पढ़ाई का भरपाई कराया जाता था. परंतु आज तकनीकी साधनों के विकसित होने के बावजूद भी इस तरह की समस्याएँ उत्पन्न होती है, जितना पहले अभाव में भी कभी नहीं होता था. 
 हां आज के युग में भी जागरूकता की बहुत कमी है. 
     मैं भी संस्कार  ए किड्स गार्डन  नामक एक  विद्यालय अपने गांव में ही चलाता हूं, पर लॉक डाउन की स्थिति आने पर भी मैंने पूर्ण तरह से प्रयास किया कि हमारे यहां के छात्र पढ़ाई से वंचित न रहे. हां कुछ  उन छात्रों के साथ समस्या उत्पन्न होती है, जिनके अभिभावक सजग नहीं हैं तथा उनके पास  एंड्रोआएड सेट मोबाइल  नहीं है.  लॉक डाउन दरअसल 25 मार्च को प्रारंभ हुआ, लेकिन इससे पूर्व 14 मार्च को ही कई राज्य के सरकारों ने जिसमें बिहार भी है जनहित में यह घोषणा किया कि 15 मार्च से 31 मार्च तक राज्य के सभी विद्यालयों, सिनेमाघरों तथा वैसे कार्यस्थल जहां लोगों की भीड़ लगती है, उसके दैनिक कार्यक्रमों को  प्रतिबंधित कर दिया गया. उस  स्थिति में हमनें  बच्चों को तो यहां आने से वंचित किया परंतु अभिभावक एक-एक करके आकर अपना होम असाइनमेंट कार्यालय से ले जाते थे. वैसे भी कुछ अभिभावक जिनकी उदासीन रवैया थी, यदि वह न आ पाते थे तो किसी न किसी माध्यम से उनके यहां होम असाइनमेंट पहुंचाने का कार्य किया गया. परंतु जब लॉक डाउन की घोषणा पूरी तरह हो गई तो अभिभावकों का अथवा मेरा भी किसी के यहां आना-जाना बाधित रहा. उस स्थिति में हमने थोड़ी मेहनत अधिक किए और बच्चों के अभिभाव कों के पास वह होम असाइनमेंट व्हाट्सएप से भेजना शुरू किया. कुछ बच्चे व अभिभावक तो ऐसे रहे जिन्होंने फोन पर भी मेरे साथ पढ़ाई की.  इस युग में भी वैसे चंद अभिभावकों के लिए दुख है कि आज भी उनके पास व्हाट्सएप नंबर वाला मोबाइल नहीं है और न ही उनकी नज़र में इसकी कोई आवश्यकता है. उनका उद्देश्य बच्चे को केवल स्कूल भेजना और महज ६-७ साल की अवस्था में ही अपने बच्चों से जरुरत और आवश्यकता से कहीं अधिक ज्ञान की अपेक्षा रखना है. उससे भी न हुआ तो किसी-किसी से अपने बच्चे का टेस्ट दिलवाकर उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित करना है. वैसे अधिकांश अभिभावकोंं की शैक्षिक पृष्ठभूमि निम्नतम या न के बराबर होती है. शायद वही शिक्षा के महत्व को नहीं समझ पाते हैं.  हालांकि मेरे द्वारा कार्य  करने के बाद ही शहर के कुछ विद्यालयों की की खबर मिली है  कि उन्होंने  भी बच्चे को व्हाट्सएप पर होम असाइनमेंट  देना शुरू कर दिया है.  
      हमने वैसे भी कई असाइनमेंट तैयार किए हैं जिनका फायदा केजी से लेकर ऊपर स्तर तक ही नहीं अपितु घर बैठे-बैठे अभिभावक भी नया ज्ञान  सृजित कर लाभ उठा सकते हैं। मैं तो मानता हूं कि आज के युग में घर बैठे-बैठे पढ़ना और पढ़ाना बहुत ही आसान हो गया है. बशर्ते कि पूरे तकनीकी और उच्च शिक्षण कौशल शिक्षकों व प्रबंधन में होना जरूरी है. साथ ही अभिभावकों की कुशलता एवं इच्छाशक्ति इसमें मील का पत्थर साबित होता है।

                                       मेरा सुझाव

         १.सभी प्राकृतिक आपदाओं में विद्यालय बंद करना कोई विकल्प नहीं: ज्यादातर निजी विद्यालयों या सरकारी विद्यालयों में सरकारी आदेश शाही फरमान के बराबर हो जाता है, जिसके कारण बहुत सारे छात्रों को इससे नुकसान होता है. मैं एक ग्रामीण पृष्ठभूमि व ग्रामीण समाज से सम्बंधित होने  के नाते अपना अनुभव साझा करते हुए कहता हूं कि वैसे प्राकृतिक आपदा, जिसमें अत्यधिक  गर्मी के कारण बंदी की घोषणाएं कर दी गई है उस स्थिति में मैं पाता हूं कि गांव के बच्चे घर पर रहकर भी महफूज नहीं होते हैं. मेरे ख्याल से वैसे छात्र अपने स्कूल में ज्यादा सुरक्षित होते हैं.  जिस लू से बचाव के लिए या भीषण बीमारी इंसेफेलाइटिस से बचाव केलिए विद्यालयों  में अतिरिक्त अवकाश  दे दिया जाता है. उस स्थिति में बच्चे घर पर रहते हुए भी धूप में यत्र तत्र भ्रमण किया करते हैं.  परंतु वह विद्यालय में हो तो कहीं ज्यादा सुरक्षित है.  सरकार को भी करना चाहिए कि सरकारी विद्यालयों में  ही छुट्टी के बजाए अधिक से अधिक अनुकूल व्यवस्था कर देनी चाहिए. निजी विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों के  अभिभावकों को भी अनुकूल  व्यवस्था की अपेक्षा विद्यालय प्रबंधन से करना चाहिए।
            २. आपदा के कारण हुए अवकाश की भरपाई पूर्व निर्धारित अवकाश से हो:  आपदा के कारण जितने दिन विद्यालय बंद होते हैं उसकी भरपाई सार्वजनिक अवकाशों में कटौती करके करनी चाहिए. जैसे जितने दिन विद्यालयों में अतिरिक्त अवकाश रहा उतने दिन के बराबर रविवार अथवा सप्ताहिक छुट्टी में कटौती होनी चाहिए तथा अधिक छुट्टी वाले त्योहारों में भी कटौती होनी चाहिए. जैसे: दुर्गा पूजा, ईद, इत्यादि.
            ३.अत्यधिक गर्मी जैसी आपदा अवकाश में समय परिवर्तन:  एक प्रयास यह भी किया जा सकता है कि अत्यधिक गर्मी यदि अतिरिक्त छुट्टी का वजह बने तो सांयकालीन (Evening shift) व्यवस्था कर दी जाए. बशर्ते कि बिजली आदि की पुख्ता प्रबंध विद्यालयों में हो. यदि सरकारी विद्यालयों में सरकार को ऐसा करना संभव न लगे तो निजी विद्यालयों को इसकी स्वतंत्रता मिले. हालाँकि कुछ राज्यों,जैसे महाराष्ट्र के सरकारी विद्यालयों में इस तरह की व्यवस्था है. 

             परन्तु दुःख की बात यह है कि बिहार जैसे राज्यों में विकास का काम कागज पर दिखना ही जरुरी है. वास्तविकता से विशेष मतलब नहीं है. यहाँ सरकारी शिक्षकों की गरिमा व मानमर्यादा का कोई मूल्य ही नहीं है. सरकार शिक्षक को शिक्षक कभी समझ नहीं पाई है. जिस दिन सरकार शिक्षक को शिक्षक समझ ले उस दिन शिक्षा व्यवस्था में बहुत हद तक सुधर दिखने लगेगा. शिक्षक को शिक्षक समझने का मतलब उसे गैरशैक्षणिक कार्यों में न लगाया जाए. लेकिन विडम्बना यह है कि प्राकृतिक आपदाओं के चलते जब बच्चों केलिए विद्यालय में अवकाश होता है तो शिक्षकों को अवकाश न देकर उनसे गैर शैक्षणिक कार्य करवाया जाता है. लेकिन सरकार यदि शिक्षक को शिक्षक समझती तो उन शिक्षकों से गैर शैक्षणिक कार्य न कराकर उनसे गृह भ्रमण कराया जाता एवं बच्चों के पढ़ाई-लिखाई का जाएजा लेने को कहा जाता. जब शिक्षक यदा-कद बच्चे व अभिभावक के घर दिशा-निर्देश करने केलिए पहुंचते तो  अभिभावकों का भी शिक्षक के प्रति विश्वास और श्रद्धा की भावना जागृत होती. परन्तु दुःख की बात यह भी है कि हमारे बहुत सारे शिक्षक भी नादान है और शिक्षण कार्य से मुंह मोरना उनके लिए आम बात है..............

Comments

Popular Posts