गाँव में हिंदी दिवस के बहाने.

हो सकता है मरईआं में इंजोर ................................

नज़ारा प्रह्लादपुर गाँव का है जहाँ अपने गुरुदेव डॉ. रामविलास जी के साथ  हिंदी दिवस मना रहा था।(कुल चार तस्वीरें)

14 सितम्बर 2018 को देश के विभिन्न हिस्सों में हिंदी दिवस का आयोजन किया गया. मैं भी किसी आयोजन का हिस्सा बना जिसकी तस्वीर आपलोगों के सामने है.  बिल्कुल प्रकृति की छाँव में और गाँव की वादियों में . यह मेरे गुरुदेव डॉ.रामविलास जी का पैत्रिक गाँव प्रह्लादपुर है जो मुजफ्फरपुर जिलान्तर्गत मुशहरी प्रखंड में स्थित है. यह गुरुदेव का पैत्रिक निवासस्थान भी है,जहाँ इनके सौजन्य से भारतीय पुस्तकालय उनके छात्र जीवन काल से ही अस्तित्व में है. इसी पर आधारित इन्होने वज्जिका में एक किताब लिखा था,जिसका नाम मरईआ के इंजोर है. शीर्षक का भावात्मक अर्थ है कि इसी झोपड़ी से,जहाँ उनका पैत्रिक निवास व भारतीय पुस्तकालय स्थित है,बहुत सारे गरीब छात्र उनके निर्देशन में अपनी खुशाल जिंदगी जी रहे हैं. 
मैं भी बचपन में अपने पूज्य गुरुदेव स्व.रामेश्वर प्रसाद गुप्त "मधुरापुरी: एवं स्व.प्रो.जयमंगल दास जी के साथ काव्य गोष्ठी में आया करता था. वह नब्बे के दशक का समय था. एक गुरु जी के साइकिल पर मैं बैठ जाता था और दूसरे  गुरुजी के साइकिल पर शशिकांत भैया.उस समय हम दोनों बाल्यावस्था में ही थे.साथ में मेरे कुछ और पड़ोसी भी कभी-कभी गोष्ठी में हमलोगों के साथ जाया करते थे,जैसे कमलेशकुमार शर्मा पियूष तथा कमलेश कुमार कनक इत्यादि.   यदि इन बातों पर ही लिखना शुरू करूँ तो लेख कभी खत्म हो ही नहीं सकता है. वह यादगार पल जीवन का काफी रोमांटिक पल हुआ करता था.क्योंकि उसमें मेरा बचपन छुपा हुआ था और जो कोई मुझे वहाँ नज़र आए वो उस समय या तो अपनी प्रौढावास्था  में थे या युवा अवस्था में. कुछ वैसे  भी महानुभाव थे,जिनके नाम के पहले स्वर्गीय लगा गया.तस्वीर में जिन छोटे-छोटे बच्चे को देख रहे  हैं,उस समय उनमें से किसी का जन्म भी नहीं हुआ था.मेरे गुरुदेव कुछ बात को लेकर निराश हैं.
उनका मानना है कि जिस अखंड दीप को जलाकर उन्होंने सामाजिक चेतना भरने का काम वहाँ के तत्कालीन युवाओं के बीच  किया था, वह दीपक आज या तो बुझ रहा है या सभी अपने घरों को जला रहे हैं.वहाँ के जितने भी कर्मठ बुद्धिजीवियों का उदय हुआ आज ज्यादातर लोगों का योगदान वहाँ  नगण्य है. केवल राजेन्द्र बाबू बच गए हैं जो नियमित रूप से उस मरईआ में साँझ दिखलाने का काम करते हैं, बाकि लोगों को उससे कोई लेना-देना नहीं है. मेरे अमरख गाँव के पुस्तकालय के सदस्यों का हाल तो और ही खराब है. यहाँ भी बुद्धिजीवियों ने श्रमदान से पुस्ताकालय की स्थापना गुरुदेव स्व.रामेश्वर प्रसाद गुप्ता मधुरापुरी जी के नेतृत्व में किया गया था,जिसके प्रथम अध्यक्ष बयोवृद्ध समाजसेवी श्री सुखदेव प्रसाद एवं सचिव मेरे पिता श्री  कलेश्वर कलाधर थे. तब वह युवा बुद्धिजीवियों का मंच कहलाता था. परन्तु अब यह तो राजनीतिक अड्डा बनाकर रह  गया है. राजनीतिकरण होने के नाते मैं भी उससे दूरी बढ़ा लिया हूँ परन्तु अलख जगाने का काम अपने आस्था फाउन्डेशन (ए.एफ़) के माध्यम से नियमित  रूप से करता हूँ.
                                      हिंदी दिवस के बहाने मुझे उस बिरासत पर जाने का मौका मिला और  वहाँ के बुद्धिजीवियों और युवाओं से मिलकर फिर से एक आशा की किरण दिखाई दी और लगा कि  उस मरईआ में फिर से इंजोर किया जा सकता है.क्योंकि वहाँ माध्यमिक स्तर के छात्रों की भागीदारी अधिक से अधिक थी. वहाँ हम जिंतने बुद्धिजीवी वर्ग के लोग उपस्थित थे यदि इन युवाओं को प्रेरित करते रहें तो अवश्य ही लक्ष्य को पूरा किया जा सकता है. कार्यक्रम में उपस्थित मेरे पड़ोसी शम्भू भैया के अलावे युवा व होनहार छात्र परमीत कुमार, बबलू कुमार,पुर्नेंदु प्रियदर्शी,विवेक विशाल इत्यादी की रूचि लक्ष्य की प्राप्ति में बाधा  नहीं आने देंगे. संस्थान के वरिष्ठतम सदस्य राजेन्द्र बाबू के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है,क्योंकि विरासत यदि जिन्दा है तो उन्हीं के बदौलत. साथ ही वरिष्ठ सदस्य सुरेन्द्र बाबू की सक्रियता भी लक्ष्य की प्राप्ति को और सुलभ बनाएगा. मैं तो उस दिन मन ही मन संकल्प भी ले लिया कि यदि ये लोग उस  सुनसान जगह पर दीप जलाने का काम करेंगे तो मैं भी वहाँ एक दीप जलाने का प्रयास अवश्य करूँगा.











Comments

  1. बहुत बढ़िया, डॉ रामबिलास जी का आशीर्वाद हम सब को मिलता रहे यही कामना है. बहुत सूंदर आयोजन, गांव में साहित्य का पहुंचना जरुरी है.

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